महाश्रमण ने कहा

1. तुम कार्यकर्ता बनना चाहते हो यह अच्छी बात हो सकती है पर तुम यह सोचो तुम्हारा अपने काम, क्रोध व भय पर नियंत्रण है या नहीं | - आचार्य श्री महाश्रमण 2. यदि यह आस्था हो जाए कि मूर्तिपूजा करना, द्रव्यपूजा करना धर्म है तो वह तेरापंथ की मान्यता के अनुसार बिल्कुल गलत है | हमारे अनुसार यह सम्यक्त्व को दूषित करने वाला तत्व है | - परमश्रद्धेय आचार्यश्री महाश्रमणजी 3. जो भी घटना घटित हो, उसे केवल देखना सीखे, उसके साथ जुड़े नहीं | जो व्यक्ति घटना के साथ खुद को जोड़ देता है, वह दु:खी बन जाता है और जो द्रष्टा ( viewer ) भाव से घटना को देखता है, वह दुःख मुक्त रहता है | ~आचार्य श्री महाश्रमणजी

Monday, 2 November 2020

गायन, चित्रकला, भाषण और लेखन प्रतियोगिताओं का राष्ट्रीय स्तर पर होगा शीघ्र आयोजन

अणुव्रत आंदोलन द्वारा नई पीढ़ी के नव निर्माण की अनूठी पहल

नई पीढ़ी में रचनात्मकता और सकारात्मकता के विकास को केन्द्र में रख कर अणुव्रत आन्दोलन की प्रतिनिधि संस्था अणुव्रत विश्व भारती द्वारा पूरे देश में अणुव्रत क्रिएटिविटी कॉन्टेस्ट के नाम से विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा रहा है। गायन, चित्रकला, भाषण और कविता व निबन्ध लेखन जैसी रचनात्मक विधाओं में होने वाली इन प्रतियोगिताओं में तीन वर्गों में कक्षा 3 से 12 तक के बच्चे भाग ले सकेंगे। प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए शीघ्र ही वेबसाइट और ऐप लॉन्च किए जाएंगे। उल्लेखनीय है कि इनमें से कुछ प्रतियोगिताएं पिछले 25 वर्षों से आयोजित की जा रही हैं लेकिन कोरोना जनित परिस्थितियों के चलते पहली बार इन्हें ऑनलाइन प्लेटफार्म पर आयोजित किया जा रहा है।


अणुविभा के अध्यक्ष श्री संचय जैन ने बताया कि ये प्रतियोगिताएं पूर्णतः ऑनलाइन आयोजित होंगी जिसमें बच्चे अपनी स्कूल के माध्यम से अथवा सीधे भी पंजीकरण करवा कर अपनी प्रविष्ठि अपलोड कर सकेंगे। प्रतियोगियों में बिना किसी जाति, धर्म, वर्ग या लैंगिक भेदभाव के कक्षा 3 से 12 का कोई भी बच्चा भाग ले सकेगा और यह पूर्णतः निशुल्क होगी। शहर व जिला स्तर पर ई प्रमाणपत्र प्रदान किए जाएंगे एवं राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर श्रेष्ठ प्रतियोगियों को चुना जाएगा और उन्हें पुरस्कार और प्रमाण पत्र प्रदान किया जाएगा। प्रतियोगिताओं का मुख्य विषय है - "कोरोना वैश्विक संकट : प्रभाव, समाधान और अवसर" जिसके अन्तर्गत दिए गए अनेक उप विषयों में से बच्चे अपनी पसन्द के विषय पर प्रस्तुति दे सकेंगे।


उल्लेखनीय है कि 7 दशक पूर्व महान संत आचार्य तुलसी द्वारा प्रवर्तित अणुव्रत आंदोलन मानवीय मूल्यों के संवर्द्धन के लिए अपने बहुआयामी रचनात्मक प्रकल्पों के माध्यम से निरन्तर प्रयासशील है। अणुव्रत दर्शन की यह मान्यता है छोटे-छोटे व्रत स्वीकार कर व्यक्ति स्वयं को सकारात्मक दिशा में अग्रसर कर सकता है और सुधरे व्यक्ति से ही समाज, राष्ट्र और विश्व सुधर सकता है। वर्तमान में अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण इस आन्दोलन को आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं और अहिंसा यात्रा के रूप में हजारों किलोमीटर की पदयात्राएं करके जन-जन को नैतिकता, सद्भावना और नशामुक्ति का संदेश दे रहे हैं। 


नई पीढ़ी का संस्कार निर्माण अणुव्रत आंदोलन की प्रमुख प्रवृत्तियों में शामिल रहा है और अणुव्रत विश्व भारती का राजसमंद स्थित मुख्यालय चिल्ड्रन'स पीस पैलेस बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक प्रयोगशाला है जहां कुछ दिन बीता कर ही बच्चे अपने आप को रूपांतरित अनुभव करते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रणीत जीवन विज्ञान पाठ्यक्रम नई पीढ़ी के नव निर्माण का सशक्त माध्यम है जिसके माध्यम से लाखों बच्चे लाभान्वित हो चुके हैं।


श्री जैन ने बताया कि प्रतियोगिता में भाग लेने के इच्छुक स्कूल और बच्चों के लिए शीघ्र ही वेबसाइट का लिंक शेयर किया जाएगा। प्रतियोगिता की तैयारियों के लिए अणुविभा की केंद्रीय टीम में अध्यक्ष श्री संचय जैन के अलावा वरिष्ठ उपाध्यक्ष श्री अविनाश नाहर, महामंत्री श्री राकेश नौलखा, मंत्री श्री प्रकाश तातेड, सह मंत्री श्री जय बोहरा प्रतियोगिताओं के राष्ट्रीय संयोजक श्री रमेश पटावरी एवं लगभग 150 से अधिक जोनल, राज्य एवं स्थानीय संयोजकों की टीम दिन रात तैयारियों में जुटी है। श्री विमल गुलगुलिया के तकनीकी सहयोग से प्रतियोगिता के लिए वेबसाइट एवं ऐप तैयार किया गया है।



Friday, 3 January 2020

अभातेयुप द्वारा विश्वशांति एवं एकता का प्रतीक अंतरराष्ट्रीय जैन सामायिक फेस्टिवल का भव्य आयोजन ५ जनवरी को

कोलकाता, अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद द्वारा आगामी 5 जनवरी 2020 को नववर्ष के प्रथम रविवार को सम्पूर्ण विश्व मे सकल जैन समाज द्वारा विश्व मैत्री और एकता का संदेश लिए हो रहे जैन सामायिक फेस्टिवल का आयोजन हो रहा है।
विश्व में अहिंसा एवं शांति के सिद्धांतों पर चलकर विश्व शांति हेतु प्रेरणा देने वाले जैन धर्म में समायिक साधना का अनूठा महत्व है । जैन धर्म के सिद्धांतों अनुसार 48 मिनट तक मन-वचन-काया से किसी की प्रकार की पापकारी प्रवृति का त्यागकर अपनी आत्मा में रमण करना ही समायिक करना है ।
विश्वशांति एवं एकता हेतु परम पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी की पावन प्रेरणा से जैन तेरापंथ धर्मसंघ के युवाओं का संगठन अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद द्वारा अनूठे रूप में जैन समायिक फेस्टिवल का आयोजन पूरे देशभर में और विश्व के अनेक प्रमुख शहरों में नववर्ष 2020 के प्रथम रविवार, दिनांक 5 जनवरी को किया जाएगा।
इस कार्यक्रम की जानकारी देते हुए अभातेयुप राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री संदीप कोठारी ने कहां कि पूरे भारतवर्ष सहित पूरे विश्व में अनेंको स्थानों पर जैन समायिक फेस्टिवल के माध्यम जैन धर्म के सभी संप्रदायों के श्रावक समाज साथ मिलकर एक समायिक की आराधना कर जैन एकता का परिचय देंगे । इस कार्यक्रम हेतु जैन धर्म के महान आचार्य श्री महाश्रमण जी, आचार्य डॉ. शिवमुनि जी म.सा, आचार्य विजय श्री अभयदेव सुरी जी म.सा, आचार्य श्री ललितप्रभ सागर जी म.सा, श्री सौभाग्य मुनि जी म.सा, मुनिप्रवर श्री जयकीर्ति म.सा आदि अनेकों आचार्यों - मुनि प्रवर, साधु साध्वी जी भगवंतों ने जैन समायिक फेस्टिवल कार्यक्रम हेतु आशीर्वाद प्रदान किया है और इस प्रयास की अनुमोदना की है ।
जैन समाज के गौरव एवं जैन समाज से एकमात्र मुख्यमंत्री श्री विजय रूपानी ने जैन सामायिक फेस्टिवल कार्यक्रम को समर्थन दिया है ।
इस कार्यक्रम में अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के साथ श्री ऑल इंडिया श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेस, अखिल भारतीय खतरगच्छ युवा परिषद, अखिल भारतीय श्री प्राज्ञ जैन युवा मंडल, भारतीय जैन संगठना आदि विभिन्न संगठनों ने सहभागिता दर्ज करने हेतु समर्थन दिया है । जैन एकता में मील का पत्थर सिद्ध होनेवाले कार्यक्रम को पूरे देशभर में आयोजन करवाने हेतु अनेकों संघीय संस्थाएं सज्ज बन चुकी है ।
अभातेयुप के महामंत्री श्री मनीष दफ्तरी ने इस कार्यक्रम की आयोजना हेतु बताया कि अभातेयुप की 346 शाखाओं में इस कार्यक्रम को लेकर अपूर्व उत्साह है और जैन समाज के सभी युवा इस कार्यक्रम में शिरकत करेंगे यही विश्वास है ।
अभातेयुप जैन तेरापंथ न्यूज के सहसंपादक पंकज दुधोडिया ने बताया कि वर्ष के प्रथम रविवार 5 जनवरी 2020 को देश भर में वृहद रूप से आयोजित जैन सामायिक फेस्टिवल को लेकर सकल जैन समाज में उत्साह देखने को मिल रहा है। यह आयोजन विश्व मैत्री और जैन एकता का प्रतीक बनेगा।

Monday, 15 July 2019

ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की ओर हो गति: आचार्यश्री महाश्रमण

◆आचार्यश्री ने चतुर्विध धर्मसंघ को मोक्ष प्राप्ति का बताया मार्ग
◆आचार्यश्री की पावन प्रेरणा प्राप्त कर निहाल हो उठे श्रद्धालु
15.07.2019 कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): चार शब्द हैं-मार्ग, मार्गदर्शक, गति और गंता। मार्ग अपने आप में महत्त्वपूर्ण होता है। इसके भी दो प्रकार होते हैं-सन्मार्ग और कुमार्ग। कुमार्ग अथात् गलत राह पर चलने से दुर्गति को प्राप्त किया जा सकता है तो सन्मार्ग पर चलकर सद्गति को प्राप्त किया जा सकता है। आदमी को कहां जाना है, उसका गंतव्य कहां है, यह निर्धारित हो जाए तो मार्ग का चुनाव भी किया जा सकता है। अध्यात्म जगत का गंतव्य मोक्ष है। उस मोक्ष प्राप्त की दिशा में ले जाने वाला मार्ग है- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। इन मार्गों पर गति करते हुए मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
इस मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। जब कोई मार्गदर्शक होता है तो वह सही मार्ग दिखा सकता है। ऐसे मार्गदर्शक गुरु और आचार्य होते हैं। मार्ग का ज्ञान हो जाता है तो फिर उस मार्ग पर गति होती है और गति तब होती है जब कोई गंता होता है। जब गति होगी तो गंतव्य की भी प्राप्ति संभव हो सकती है। जैन शासन में धर्म की दिशा में आगे बढ़ने के लिए चतुर्मास के चार महीनों का बहुत महत्त्व है। चतुर्मास लगने से पूर्व आने वाली चतुर्दशी का भी अपना महत्त्व है। मानों यह दिन चतुर्मास लगने की सूचना देने वाला है। वर्ष के बारह महीनों में धर्म की दृष्टि से चतुर्मास का समय ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। इन चार महीनों में कितने-कितने धार्मिक कार्य किए जाते हैं। इस दौरान पर्युषण, नवाह्निक अनुष्ठान आदि के द्वारा तपस्याओं आदि का क्रम भी चलता है।
साधु-साध्वियों का एक स्थान पर रहना होता है तो साधु-साध्वियां भी धर्म की ओर गति करते हैं और उनकी सन्निधि प्राप्त कर श्रावक-श्राविकाएं भी धर्म की ओर गति करते हैं। इस दौरान साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं को ज्ञानाराधना की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा लिखित संबोधित ग्रंथ साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं दोनों को सीखने का प्रयास करना चाहिए। ज्ञानशाला के माध्यम से ज्ञानार्जन का क्रम चलना चाहिए। इसके अलावा समण संस्कृति संकाय आदि अनेक संस्थाओं के माध्यम से भी ज्ञानार्जन का क्रम चलता है, उनके माध्यम से ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने आगे कहा गुरु के प्रति आस्था बढ़े, गुरुधारणा हो और श्रद्धा की दृढ़ता का विकास हो। इस प्रकार दर्शनाराधना का विकास होना चाहिए। साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं को चारित्राराधना के क्षेत्र में विकास करने का प्रयास करना चाहिए। तपःराधना की दिशा में भी गति करने का प्रयास करना चाहिए। बेला, तेला, अठाई, मासखमण आदि अनेक प्रकार की तपस्याओं के माध्यम से तप की आराधना की जा सकती है। साधु-साध्वियों में विशेष रूप से रोज नवकारसी हो जाए तो आत्मा रूपी गुल्लक में कुछ-कुछ तपस्या प्रतिदिन भरती रह सकेगी। बेंगलुरु में चतुर्मास हो रहा है। यहां के निवासियों को भी जितनी अनुकूलता हो, इसका लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। जीवन को सद्गति की ओर जाने वाले उक्त सन्मार्ग को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने चतुर्मास प्रवास स्थल में बने महाश्रमण समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को दिखाईं।
इस दौरान आचार्यश्री ने चतुर्मास स्थल में चलने वाले विभिन्न धार्मिक और ज्ञानात्मक विकास के अनेक कार्यक्रमों के समय का निर्धारण करने के साथ ही उस कार्य के लिए विभिन्न चारित्रात्माओं को नामित भी किया। इसके उपरान्त आचार्यश्री ने हाजरी का वाचन किया। नवदीक्षित बालमुनि ऋषिकुमारजी ने लेखपत्र का उच्चारण किया। तत्पश्चात् समस्त साधु-साध्वियों ने लेखपत्र का उच्चारण कर अपनी श्रद्धा और समर्पण के भावों को पुष्ट बनाया। आचार्यश्री ने नवदीक्षित 21 साध्वियों को मुनिवृंद को वंदन करने का आदेश दिया और उनके वंदन करने के उपरान्त मुनिवृंद की ओर से मुनि दिनेशकुमारजी और मुनि धर्मरूचिजी ने साध्वियों को मंगलकामना प्रदान की। इसी प्रकार नवदीक्षित मुनियों से साध्वीवृंद को वंदन कराया तो साध्वियों की ओर से साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने नवदीक्षित मुनिद्वय के प्रति मंगलकामना व्यक्त की। समण संस्कृति संकाय के विभागाध्यक्ष श्री मालचंद बैंगानी ने कार्यक्रम से संबंधित जानकारी प्रस्तुत की।

Tuesday, 16 October 2018

Acharya Shree Mahashraman Ji

Name : Acharya Shri Mahashraman

Original Name : Mohan Dugar
Date of Birth : 13 May 1962
Place of Birth : Sardarsahar (Rajasthan)
Initiation- Date : 5th May 1974
Place : Sardarsahar (Rajasthan)
Name : Muni Mudit
Initiated by : Muni Shri Sumermalji (Ladnun)
Guru : Acharya Shri Tulsi, Acharya Shri
Designated Acharya
Date : 9 May 2010
Place : Sardarshahar

Patotsav
Date & Place : 23 May 2010, Sardarshahar
जीवन परिचय
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राजस्थान के इतिहासिक नगर सरदारशहर में पिता झुमरमल एवं माँ नेमादेवी के घर 13 मई 1962 को जन्म लेने वाला बालक मोहन के मन में मात्र 12 वर्ष की उम्र में धार्मिक चेतना का प्रवाह फुट पड़ा एवं 5 मई 1974 को तत्कालीन आचार्य तुलसी के दिशा निर्दशानुसार मुनि श्री सुमेरमलजी "लाडनू " के हाथो बालक मोहन दीक्षित होकर जैन साधू बन गये !

धर्म परम्पराओ के अनुशार उन्हें नया नाम मिला "मुनि मुदित"
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आज तेरापंथ धर्म संध को सूर्य से तेज लिए चाँद भरी धार्मिक,आध्यात्मिक मधुरता लिए 11 वे आचार्य के रूप में आचार्य महाश्रमण मिल गया है ! विश्व के कोने कोने में भैक्षव (भिक्षु) शासन की जय जयकार हो रही है!

भाई बहन : छह भाई, दो बहिने ( आचार्य श्री महाश्रमण जी सातवे क्रम में )
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गोर वर्ण , आकर्षक मुख मंडल , सहज मुस्कान से परिपूर्ण , विनम्रता , दृढ़ता , शालीनता, व् सहजता जैसे गुणों से ओत:प्रोत आचार्य महाश्रमणजी से न केवल तेरापंथ अपितु पूरा धार्मिक जगत आशा भरी नजरो से निहार रहा है ! तेरापंथ के अधिनायकदेव भिक्षु, अणुव्रत के प्रणेता आचार्य तुलसी एवं श्रेद्धेय जैनयोग
पुनरुद्वारक प्रेक्षा प्रणेता महाप्रज्ञजी के पथ वहाक आचार्य श्री महाश्रमणजी हम सबका ही नही , पूरी मानव जाती का पथदर्शन करते रहेंगे !

700 साधू- साध्वीया, श्रमण- श्रमणीयो, एवं सैकड़ो श्रावक- श्राविकाओं को सम्भालना एवं धर्म संघ एवं आस्था से बांधे रखना बड़ा ही दुर्लभ है! आज के युग में हम एक परिवार को एक धागे में पिरोके नही रख सकते तब तेरापंथ धर्मसंघ के इस विटाट स्वरूप को एक धागे में पिरोकर रखना, वास्तव में कोई महान देव पुरुष ही होगा जो तेरापंथ के आचार्य पद को शुभोषित कर रहे है!

किसी भी परम्परा को सुव्यवस्थित एव युगानुरूप संचालन करने के लिए सक्षम नेतृत्व की जरूरत रहती है ! सक्षम नेतृत्व के अभाव में सगठन शिथिल हो जाता है! और धीमे-धीमे छिन्न भिन्न होकर अपने अस्तित्व को गंवा बैठता है !

तेरापंथ उस क्रान्ति का परिणाम है जिसमे आचार्य भिक्षु का प्रखर पुरुषार्थ , सत्य निष्ठा एवं साधना के प्रति पूर्ण सजगता जुडी हुई है . आचार्य भिक्षु की परम्परा में आचार्य तुलसी एवं दसवे आचार्य महाप्रज्ञ न केवल जैन परम्परा अपितु अध्यात्म जगत के बहुचर्चित हस्ताक्षर थे! उन्होंने जो असाम्प्रदायिक सोच एवं अहिंसा , मानवतावादी दृष्टिकोण दिया है वः एक मिसाल है! आचार्य महाप्रज्ञ प्रेक्षाध्यान साधना पद्धति के प्रणेता, महान दार्शनिक व् कुशल साहित्यकार के रूप में लोक विश्रुत थे!

आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने उतराधिकारी के रूप में 35 वर्षीय महाश्रमण मुनि श्री मुदित कुमारजी का मनोयन किया था ! तेरापंथ में युवाचार्य मनोयन का इसलिए विशेष महत्व है की यहा एक आचार्य की परम्परा है! तेरापंथ के भावी आचार्य की नियुक्ति वर्तमान आचार्य का विशेषाधिकार है! इसमें किसी का हस्तक्षेप नही होता है ! आचार्य इस ओर स्वय विवेक से निर्णय लेते है !

तेरापंथ के वर्तमान 11 वे आचार्य महाश्रमण जी उम्र में युवा है , चिन्तन में प्रोढ़ है, ज्ञान में स्थविर है ! तेरापंथ की गोरवशाली आचार्यो की परम्परा में यह एक ओर गोरव जुड़ गया आचार्य श्री महाश्रमण के रूप में ! 22 वर्ष की उम्र में वे पूज्यवर रूप के विधिवत निकट आए फिर एक -एक सीढ़ी आगे बढ़ते गए! आज तेरापंथ के भाग्य विधाता के रूप में मुनि मुदित, आचार्य महाश्रमण के रूप में प्रतिष्ठित है !

आचार्य श्री महाश्रमण मानवता के लिए समर्पित जैन तेरापंथ के उज्जवल भविष्य है। प्राचीन गुरू परंपरा की श्रृंखला में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अपने उतराधिकारी के रूप में मनोनीत महाश्रमण विनम्रता की प्रतिमूर्ति है। अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी की उन्होंने अनन्य सेवा की। तुलसी-महाप्रज्ञ जैसे सक्षम महापुरूषों द्वारा वे तराशे गये है।

जन्ममात प्रतिभा के धनी आचार्य महाश्रमण अपने चिंतन को निर्णय व परिणाम तक पहुंचाने में बडे सिद्धहस्त हैं। उसी की फलश्रुति है कि उन्होंने आचार्य महाप्रज्ञ को उनकी जनकल्याणकारी प्रवृतियों के लिए युगप्रधान पद हेतु प्रस्तुत किया। हमारे ग्यारवे आचार्य श्री महाश्रमण उम्र से युवा है, उनकी सोच गंभीर है युक्ति पैनी है, दृष्टि सूक्ष्म है, चिंतन प्रैढ़ है तथा वे कठोर परिश्रमि है। उनकी प्रवचन शैली दिल को छूने वाली है। महाश्रमण की प्रज्ञा एवं प्रशासनिक सूझबूझ बेजोड़ है।

क्रमिक विकास
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आचार्य महाश्रमणजी में जन्म जात प्रतिभा थी ! उनके भीतर ज्ञान -विज्ञान सैद्धांतिक सूझ-बुझ, तात्विक बोलो की पकड़ , प्रशासनिक योग्यता सहज में संप्राप्त थी! गणाधिप्ती आचार्य श्री तुलसी, एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ के चिन्तन में इनकी योग्यता के अंकन का उत्स कब हुआ ! यह समय के साथ परत दर परत खुलता रहेगा !

फिर भी इसकी हल्की पर मजबूत दस्तक देखने को लाडनू (राजस्थान) में 13 मई 1984 को मिली जब आचार्य श्री तुलसी ने अपने निजी कार्य में उन्हें नियुक्त किया ओर लगभग उसी समय प्रथम अंग सूत्र आयारो के संस्कृत भाष्य के लेखन में सहयोगी बने. श्रद्धेय आचार्यवर द्वारा आयारो जैसे आचार शास्त्रीय सूत्र पर प्रांजल भाषा में भाष्य की रचना की गई है. भाष्यकारो की परम्परा में आचार्य महाप्रज्ञ का एक गोरव पूर्ण नाम ओर जुडा हुआ है!

इसी वर्ष आचार्य श्री तुलसी का चातुर्मास जोधपुर था ! चातुर्मासिक प्रवेश 7जुलाई को हुआ ! आचार्यवर ने उन्हें (महाश्रमण ) प्रात: उपदेश देने का निर्देश दिया ! 8 जुलाई से मुनि मुदित कुमारजी (महाश्रमण ) उपदेश देना प्रारंभ किया ! उनकी वक्तृत्व शैली व् व्याख्या करने के ढंग ने लोगो को अतिशय प्रभावित किया ! जोधपुर के
तत्व निष्ठ सुश्रावक श्री जबरमलजी भंडारी ने कहा इनकी व्याख्यान शैली से लगता है ये आगे जाकर महान संत बनेगे ! 1985के आमेट चातुर्मास में भगवती सूत्र के टिपण लेख में भी सहयोगी बने!

अन्तरंग सहयोगी
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अमृत महोत्सव का तृतीया चरण उदयपुर में माध शुक्ल सप्तमी स: 2042 (16 फरवरी 1986) को मर्यादा महोत्सव के दिन आचार्य श्री तुलसी ने धोषणा की -" मै मुदित कुमार को युवाचार्य महाप्रज्ञ के अन्तरंग कार्य में सहयोगी नियुक्त करता हु !" उस घोषणा के साथ आचार्य तुलसी ने जो भूमिका बाँधी उसमे मुनि मुदित समाज के सामने उभरकर आ गये ! बैसाख शुक्ला 4 स. 2042 (13 मई 1986 ) को आचार्य श्री तुलसी ने ब्यावर में मुनि मुदित को साझपति (ग्रुप लीडर) नियुक्त किया !

अप्रमत्त साधना
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महाश्रमण पद पर अलंकृत होने के बाद उनकी स्वतन्त्र रूप से तीन यात्राए हुई जो जन सम्पर्क की दृष्टी से बड़ी ही प्रभावशाली रही थी ! माध कृष्णा 10, स.2047 (10 जनवरी 1990) को अपनी सिवांची मालाणी की यात्रा परिसम्पन्न कर सोजत रोड में पुज्यवरो के दर्शन किये तब आचार्य तुलसी ने कहा -" मै इस अवसर पर इतिहास की पुनरावृति करता हुआ तुम्हे अप्रमत्त की साधना का उपहार देता हु ." यदि किसी ने तुम्हारी अप्रमाद की साधना में स्खलन निकाली तो तुम्हे उस दिन खड़े खड़े तीन धंटा घ्यान करना होगा ! ." आज तक आपने ऐसा एक भी अवसर नही आने दिया जिसके कारण आपको प्रायच्श्रित स्वीकार करना पड़ा हो ! यह उनके अप्रमाद का परिणाम है

महाश्रमण पद का सृजन ओर नियुक्ति
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आचार्य श्री तुलसी ने संधीय अपेक्षा को ध्यान में रखकर दो पदों का सृजन किया महाश्रमण .. महाश्रमणी ! भाद्र शुक्ल 9 स. 2046 (9 सितंबर 1989) महाश्रमण पद पर मुनि मुदित कुमारजी एवं महाश्रमणी पद पर साध्वी प्रमुखा कनक प्रभाजी की नियुक्ति की! उस समय मात्र 28 वर्ष के थे हमारे वर्तमान आचार्य महाश्रमण ! ये पद अन्तरंग संधीय व्यवस्था में युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के सतत सहयोगी के रूप सृजित किये गये ! दिल्ली में माध शुक्ला सप्तमी , स. 2051 (6 फरवरी 1995) को मर्यादा महोत्सव के अवसर पर गणाधिपती गुरुदेव तुलसी ने मुनि मुदित की इस पद पर नियुक्ति की . उस समय महाश्रमण मुनि मुदित पर अमित वात्सल्य की दृष्टी करते हुए गुरुदेव तुलसी ने कहा-" धर्म संघ में मुनि मुदित का व्यक्तित्व विशेष रूप से उभरकर सामने आया है ! मै इस अवसर पर मुनि मुदितकुमार को "महाश्रमण" पद पर प्रतिष्ठित करता हु. महाश्रमण मुनि मुदितकुमार आचार्य महाप्रज्ञ के गण संचालन के कार्य में सहयोग रहता हुआ स्वय गण- सचालन की योग्यता विकसित करे! महाप्रज्ञ ने अपना आर्शीर्वाद प्रदान करते हुए कहा था -" महाश्रमण मुदितकुमार जैसे सहयोगी को पाकर मै प्रसन्न हु ! महाश्रमण के रूप में आठ वर्ष तक पुज्यवरो की सन्निधि में जो विकास किया वः चतुर्विध धर्मसंध की नजरो में बैठ गया !

युवाचार्य पद पर नियुक्ति
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दिल्ली में महाश्रमण पद पर पुन: नियुक्ति के मोके पर गुरुदेव ने जो पत्र दिया था उसकी पक्तिया थी -" इसके लिए अब जो करणीय शेष है उसकी उचित समय आचार्य महाप्रज्ञ धोषणा करेंगे ! वह उचित समय करीब अढाई वर्ष बाद भाद्र पद शुक्ला 12 स. 2054 (14 सिप्तम्बर1997) को गंगाशर बीकानेर (राजस्थान) में आया जब आचार्य महाप्रज्ञ ने एक लाख लोगो की विशाल मानव मेदनी के बीच करीब ११:३० बजे, युवाचार्य पद का नाम लेते हुए कहा -" आओ मुनि मुदितकुमार"! इसके साथ शखनाद , विपुल हर्ष ध्वनी एवं जयकारो के साथ आचार्य श्री की इस घोषणा का स्वागत किया! आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अपने युवाचार्य का नामाकरण " युवाचार्य महाश्रमण " के रूप में किया! आचार्य श्री ने पिछली दीपावली (10 नवम्बर 1996) को गणाधिपती आचार्य तुलसी के साथ हुए चिन्तन के दोरान लिखे पत्र का वाचन किया साथ ही एक अन्य पत्र भी पढ़ा जो भाद्र पद शुक्ल 8 स. 2054 (10 सितम्बर 1997 ) को ही लिखा था ! इसमें उन्होंने अपने उतराधिकारी के तोर पर महाश्रमण मुदितकुमार का नाम धोषित किया था ! परम्परा के अनुरूप आचार्य श्री ने नव नियुक्त युवाचार्य महाश्रमण मुदितकुमार जी को पछेवडी ओढाई ओर अपने वाम पाशर्व में पट पर बैठने की आज्ञा प्रदान की ! आसान ग्रहण के साथ ही हर्ष से पंडाल गूंज उठा!

Friday, 22 July 2016

धर्म के तीन प्रकार होते है - अहिंसा, संयम और तप - आचार्य श्री महाश्रमण जी

21/7/2016, धारापुर, ABTYP JTN, कोलकाता से  रजत जयंती वर्ष पर जैन कार्यवाहिनी का संघ संबोध यात्रा के रूप में आया। ये संघ प्रवचन पंडाल में जुलुस के साथ प्रवेश किया। जय जय ज्योतिचरण जय जय महाश्रमण के नारों से पूरा परिसर गुंजायमान हो गया। 
वीतराग समवसरण में विराजित गुरुदेव आचार्यश्री महाश्रमण जी मंगल पाथेय प्रदान करते हुए फ़रमाया की अहिंसा परमो धर्मः। धर्म के तीन प्रकार होते है - अहिंसा, संयम और तप। श्रावक को कभी कभी आत्मा विश्लेषण करना चाहिए। जीवन के बारे मे भी सोचना चाहिए की मैंने अपने जीवन के इस लम्बे काल में धर्म की दृष्टि से क्या किया और क्या करना चाहिए। त्याग व प्रत्याख्यान करते रहना चाहिए। यह भी चिंतन करना चाहिए की जो काम करने के लिए मैंने निर्णय लिया था उसकी क्रियांवती हुई या नही। इसकी अनुप्रेक्षा करते रहना चाहिए  रात्रि व दिन में जब कभी भी समय मिले।
चातुर्मास का समय त्याग, तपस्या व ज्यादा से ज्यादा आध्यात्मिक कार्य करने का समय है। इसमें ज्यादा से ज्यादा सामायिक की साधना का भी उपयोग करना चाहिए। सर्वप्रथम चातुर्मास में अहिंसा की साधना कैसे हो? चातुर्मास के समय तीन मुख्य बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए जिससे अहिंसा की साधना हो सके -
पहली बात ज्यादा से ज्यादा जमीकंद का त्याग करे। जमीकंद का त्याग करने से अहिंसा की साधना अपने आप हो जायेगी।
दूसरी बात सचित का त्याग करे। उसे अचित बनाने का भी प्रयास न करे,  ध्यान दे जो सहज रूप में ही अचित हो जाये उसका प्रयोग करले जैसे केले का छिलका उतरने से छिलका अलग होने पर केला अपने आप अचित बन जाता है।
तीसरी बात यथासंभव रात्रि भोजन का त्याग करे। दवाई आदि के अगार रखकर त्याग करले।
चलने फिरने में भी ध्यान दे कही इसमें  भी जीव हिंसा न हो जाये। कहीं कोई जीव जन्तु पांव के निचे न आ जाए। देखकर चलने से कई फायदे भी होते हे एक तो इसमें दया व अनुकम्पा का पालन हो जाता है, दूसरी कभी कभी खोई हुई वस्तु के मिलने की भी सम्भावना रहती है तथा दृष्टि सयंम भी बना रहता है।
अहिंसा के विकास में इस बात की और भो ध्यान देना चाहिए की देर रात्रि तक वाहनों का उपयोग न करे। अहिंसा की साधना को पुष्ट करने हेतु मन, वचन व काया से भी आवेश व गुस्सा न करे। गुस्से में अक्सर बात बिगड़ जाती है इसलिए क्रोध को छोड़ने का प्रयास करे व शांति के आनंद की अनुभूति करे। चातुर्मास के समय में श्रावक अहिंसा को आगे बढ़ाने का प्रयत्न करे।
गुरुदेव ने जैन कार्यवाहिनी कोलकाता को प्रेरणा देते हुए फरमाये की जैन कार्यवाहिनी जो बरसों से चली आ रही है। इसमें अनेक श्रावक जुड़े हुए है वे उपासक श्रेणी में ज्यादा से ज्यादा जुड़े। गुरुदेव ने दीक्षार्थी भी बनने की प्रेरणा देते हुए फ़रमाया मूल भावना होती है भावना रखनी चाहिए दीक्षा के प्रति भले इस जीवन में साधू ना बन सके अगले भव में जरूर बन सके।
जैन कार्यवाहिनी कोलकाता के रजत जयंती समारोह पर जैन कार्यवाहिनी की भिक्षु भजन मण्डली ने महाश्रमण गुरुराज, म्हाने लागे प्यारा प्यारा है..  गीतिका की सुमधुर प्रस्तुती दी।
रजत जयंती वर्ष के संयोजक श्री प्रकाश सुराणा ने अपने वक्तव्य में गुरुदेव से अगले पच्चीस वर्षों में और क्या गतिविधियाँ हो सकती है इसके लिए पूज्य गुरुदेव से निवेदन किया।
जैन कार्यवाहिनी के कार्यवाहक / अभातेयुप के परामर्शक श्री रतन दुगड़ ने भी पूज्यप्रवर के समक्ष कार्यवाहिनी के बारे में बताया।
जैन कार्यवाहिनी की निर्देशिका सह स्मारिका का लोकार्पण पूज्य प्रवर के सान्निध्य में  निर्देशक श्री बजरंग जी जैन, समन्यवक श्री महेंद्र जी दुधोडिया, रजत जयंती वर्ष संयोजक श्री प्रकाश जी सुराना द्वारा हुआ।
अंत में गुरुदेव ने आगे के आने वाले पच्चीस वर्ष कैसे हो इसके लिए उन्होंने फरमाया की एक चिंतन समिति होनी चाहिए। मुनि श्री दिनेश कुमारजी, मुनि कुमार श्रमण जी,  मुनि योगेश कुमारजी व बजरंग जी जैन मिलकर एक चिंतन समिति बनाये तथा ये समिति आने वाले पच्चीस वर्ष कैसे हो के लिए एक प्रोजेक्ट बना सुझाव रखे, चिंतन करे फिर उसे मुझे दिखाया जाये। इसके पश्चात गुरुदेव ने मंगल पाठ सुनाया। संवाद साभार : पंकज दुधोडिया, प्रीति नाहटा

Saturday, 13 February 2016

मर्यादा महोत्सव द्वितीय दिवस

तेरापंथ के ग्यारहवें अधिशास्ता,पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी के सानिध्य में मर्यादा महोत्सव
द्वितीय दिवस के कार्यक्रम का हुआ शुभारंभ।



वन्दे गुरुवरम और जय जय ज्योतिचरण से गुंजायमान हुआ पण्डाल



मर्यादा महोत्सव के साक्षी बनने उमड़े हजारों श्रद्धालु 
द्वितीय दिवस के कार्यक्रम में उपस्थित जनसमुदाय



"महाश्रमण दरबार में रहता सदा हर्ष और उल्लास
दर्शन को आतुर श्रावक समाज आता दूर दूर से खास" 



अद्भुत नजारा, अकल्पनीय दृश्य
बिहार के राज्यपाल महामहिम रामनाथ कोबिन्द हुए मर्यादा महोत्सव के कार्यक्रम में सरीक
राष्ट्रगान शुरू होने पर हजारो का जनसमूह ने अपने स्थान पर खड़ा हो कर किया संगान



तेरापंथ सरताज आचार्य श्री महाश्रमण जी के दर्शन करते हुए
मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक पल के साक्षी बनने पधारे
बिहार के राज्यपाल महामहिम श्री रामनाथ कोबिन्द 



152वें मर्यादा महोत्सव के द्वितीय दिवस पर पूज्य प्रवर का मंगल उदबोधन का
महावीर तुम्हारे चरणों में,श्रद्धा के कुसुम चढ़ाएं के साथ शुभारंभ


महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोबिन्द ने 152वें मर्यादा महोत्सव के अवसर दिया अपना वक्तव्य ।
मर्यादा व अनुशासन के बिना न परिवार चल सकता है, न समाज और न ही राष्ट्र ।
एक उज्ज्वल नक्षत्र की तरह आचार्य महाश्रमण जी ने मानवता को रोशन किया है - महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोबिन्द।



मर्यादा महोत्सव व्यवस्था समिति के अध्यक्ष श्री राजकरण दफ्तरी ने दिया स्वागत भाषण
महामहिम राज्यपाल जी को पटका पहनाकर किया गया स्वागत

जैन विश्वभारती के अध्यक्ष श्री धरम चंद लुंकड ने पुस्तक देकर किया महामहिम राज्यपाल बिहार सरकार का स्वागत




पुनः अद्भुत नजारा, अद्वितीय पल
किशनगंज के मर्यादा समवसरण से लाइव राष्ट्रगान का हुआ पुनः संगान


पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी का अभिवादन करते हुए बिहार के महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोबिन्द



आचार्य श्री महाश्रमण जी के श्री चरणों में पहुँचे भाजपा राष्ट्रीय प्रवक्ता, सह पूर्व सांसद किशनगंज सैयद शाहनावाज हुसैन



तेरापंथी महासभा के अध्यक्ष श्री कमल जी दुगड़ एवं उपाध्यक्ष श्री किशनजी डागलिया ने किया
महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोबिन्द का स्वागत ।



152 वें मर्यादा महोत्सव के दूसरे दिन श्री चरणों में पहुचे किशनगंज सांसद सैयद शाहनवाज हुसैन
उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा दुनिया अगर अहिंसा मे विश्वास करे तो दुनिया स्वर्ग बन जाए ।




गुवाहाटी श्रावक समाज पहुँचा श्री चरणों में।


पूज्य प्रवर के मंगलपाठ के उदबोधन के साथ मर्यादा महोत्सव द्वितीय दिवस का कार्यक्रम हुआ सम्पन्न ।

Monday, 5 October 2015

हम चाहते है जैन कार्यवाहिनी से युवक परिषद्, तेरापंथ सभा, तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम सब इससे जुड़े - साध्वी श्री त्रिशला कुमारी जी


जैन कार्यवाहिनी कोलकाता का स्थापना दिवस कार्यक्रम दिनांक 1 अक्टूबर को महासभा के प्रांगण में मनाया गया । मंत्री मुनि सुमेरमल जी स्वामी के सानिध्य में 27 सितम्बर 1991 को इसका गठन हुआ था। 13 की संख्या से प्रारंभ हुई यह जैन कार्यवाहिनी के आज लगभग 168 सदस्य है। जैसा की यहाँ चुनाव की प्रक्रिया नहीं है  प्रति वर्ष 2 नए संयाजको की नियुक्ति इसके निर्देशक बजरंग जी जैन करते है इस वर्ष 2 नए संयोजक सुशील चण्डालिया व संतोष सुराना के नाम की घोषणा हुई। सभी ने ॐ अर्हम की ध्वनि से नए 2 संयोजकों का स्वागत किया । 


इस वर्ष रजत जयंती वर्ष प्रारंभ हो रहा है इसलिए रजत जयंती वर्ष के लिए प्रकाश सुराना को संयोजक नियुक्त किया गया ।


जैन कार्यवाहिनी की रजत जयंती वर्ष प्रवेश पर परम श्रद्धेय आचार्य श्री महाश्रमण जी व मंत्री मुनि श्री सुमेरमल जी स्वामी ने महती कृपा करा जैन कार्यवाहिनी को अपना सन्देश प्रदान किया जिसका वाचन जैन कार्यवाहिनी के समन्यवक महेंद्र दुधोडिया ने किया । मंच का कुशल सञ्चालन निर्मल सुराना ने किया ।


दिनांक 4 अक्टूबर को उत्तर हावड़ा सभागार में साध्वी श्री त्रिशला कुमारी जी के सान्निध्य में स्थापना दिवस का द्वितीय चरण मनाया गया । साध्वी श्री जी ने मंगल आशीर्वचन प्रदान करते हुए फ़रमाया की धर्मसंघ के विकाश के लिए अनेक सभा संस्था अपना योगदान दे रही है उसमे एक है जैन कार्यवाहिनी। इसकी नींव के पत्थर है श्रद्धेय मंत्री मुनि प्रवर । उन्होंने कोलकाता चातुर्मास में ऐसी कोई योजना बनाई ।


मुझे लगता है ऐसे शुभ मुहर्त में इस जैन कार्यवाहिनी की नींव लगी है की जैन कार्यवाहिनी आज ज्यो की त्यों अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रही है । इसमें अनेक हमारे श्रावक जुड़े हुए है। इसमें 33 श्रावक ऐसे है जो उपासक बन चुके है । कोलकाता महानगर है और इनकी संख्या भी अच्छी है पर अभी संतुष्टि नहीं है । 


हम चाहते है जैन कार्यवाहिनी से अनेक लोग जुड़े । चाहे युवक परिषद्, चाहे तेरापंथ सभा, चाहे तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम सब इससे जुड़े । लेकिन इसमें आपको कोई पद नहीं मिलने वाला है । अन्य सभा संस्था में आपको पद मिल सकता है पर यहाँ कोई पद नहीं मिलने वाला यहाँ तो सिर्फ ज्ञान मिलने वाला है । गुरुदेव के पधारने से पहले जैन कार्यवाहिनी में और अधिक विकाश हो और अधिक ऊंचाई को छुए । समाज में हमारे युवक है भाई है वो इससे जुड़े और जुड़कर अपने व्यक्तित्व का विकाश करे । जीवन में विकाश करना है तो विकाश के अनेक राहे है उसमे एक राह है जैन कार्यवाहिनी तो हमारे भाई इससे जुड़े ।


जैन कार्यवाहिनी से किसी की माँ ने दीक्षा ली किसी के बेटे ने दीक्षा ली किसी की बेटी में दीक्षा ली, किसी की बहन ने दीक्षा ली  और एक ही कार्यवाहक मुनि डॉ विनोद कुमार जी ने दीक्षा ली है, तो ऐसे एक और दीक्षार्थी जुड़े तो अच्छा काम हो जाता है ।


इसका 25वे वर्ष में प्रवेश हो रहा है तो उपलब्धियों का दौर शुरू हुआ है । उपलब्धियों में और अधिक उपलब्धियां हाँसिल करे । अपने जीवन में ज्ञान दर्शन चारित्र तप का विकाश करे और संघ सेवा के लिए हमेसा तत्पर रहें । हमने देखा है रास्ते की सेवा में, तपस्या में हर कार्य में जैन कार्यवाहक आगे रहते है और भविष्य में भी आगे रहते रहें । जहाँ कही भी मौका मिले संघ सेवा करने का वहाँ सदा तत्पर रहें । जैन कार्यवाहिनी के प्रति मेरी बहुत बहुत मंगलकामना है। तपस्विनी बहन के प्रति भी मंगल कामना ।


उल्लेखनीय है की जैन कार्यवाहिनी कोलकाता के सदस्य के परिवार से दीक्षित साधू साध्वी संघ समर्पित है रणजीत चोरडिया के पुत्र मुनि योगेश कुमार जी,, बालचंद बोथरा के पुत्र मुनि मुदित कुमार जी, महेंद्र दुधोडिया की पुत्री साध्वी श्री मौलिकयशा जी व नरेन्द्र पुगलिया की माँ साध्वी हिम्मत यशा जी (संथारारत) थे। यह सूचना जैन कार्यवाहिनी कोलकाता के प्रचार प्रसार संयोजक पंकज दुधोडिया ने दी।

Saturday, 17 January 2015

भक्तामर

भक्तामर

भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्।
सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा-
वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥

य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:।
स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥

बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ!
स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥

वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध ्या ।
कल्पान्त -काल - पवनोद्धत- नक्र- चक्रं ,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥ 4॥

सोऽहं तथापि तव भक्ति - वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत - शक्ति - रपि प्रवृत्त:।
प्रीत्यात्म - वीर्य - मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्॥ 5॥

अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र -चारु -कलिका-निकरैक -हेतु:॥ 6॥

त्वत्संस्तवेन भव - सन्तति-सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त - लोक - मलि -नील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु- भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥ 7॥

मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, -
मारभ्यते तनु- धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल - द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:॥ 8॥

आस्तां तव स्तवन- मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ 9॥

नात्यद्-भुतं भुवन - भूषण ! भूूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त - मभिष्टुवन्त:।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ 10॥

दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष - विलोकनीयं,
नान्यत्र - तोष- मुपयाति जनस्य चक्षु:।
पीत्वा पय: शशिकर - द्युति - दुग्ध-सिन्धो:,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥ 11॥

यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक - ललाम-भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति॥ 12॥

वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष- निर्जित - जगत्त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलङ्क - मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्॥13॥

सम्पूर्ण- मण्डल-शशाङ्क - कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास् - त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति।
ये संश्रितास् - त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,
कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥ 14॥

चित्रं - किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्-
नीतं मनागपि मनो न विकार - मार्गम्््् ।
कल्पान्त - काल - मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥ 15॥

निर्धूम - वर्ति - रपवर्जित - तैल-पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रय - मिदं प्रकटीकरोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:॥ 16॥

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति।
नाम्भोधरोदर - निरुद्ध - महा- प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके॥ 17॥

नित्योदयं दलित - मोह - महान्धकारं,
गम्यं न राहु - वदनस्य न वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्ज - मनल्पकान्ति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्क-बि्बम्॥ 18॥

किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तम:सु नाथ!
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:॥ 19॥

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु।
तेजो महा मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि॥ 20॥

मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि॥ 21॥

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ 22॥

त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्।
त्वामेव सम्य - गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:॥ 23॥

त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर - मनन्त - मनङ्ग - केतुम्।
योगीश्वरं विदित - योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥ 24॥

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥ 25॥

तुभ्यं नमस् - त्रिभुवनार्ति - हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल -भूषणाय।
तुभ्यं नमस् - त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय॥ 26॥

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै - रुपात्त - विविधाश्रय-जात-गर्वै:,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ 27॥

उच्चै - रशोक- तरु - संश्रितमुन्मयूख -
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति॥ 28॥

सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्-विलस - दंशुलता-वितानं
तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥ 29॥

कुन्दावदात - चल - चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत -कान्तम्।
उद्यच्छशाङ्क- शुचिनिर्झर - वारि -धार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ 30॥

छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क- कान्त-
मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम्।
मुक्ता - फल - प्रकर - जाल-विवृद्ध-शोभं,
प्रख्यापयत्-त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥ 31॥

गम्भीर - तार - रव-पूरित-दिग्विभागस्-
त्रैलोक्य - लोक -शुभ - सङ्गम -भूति-दक्ष:।
सद्धर्म -राज - जय - घोषण - घोषक: सन्,
खे दुन्दुभि-ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी॥ 32॥

मन्दार - सुन्दर - नमेरु - सुपारिजात-
सन्तानकादि - कुसुमोत्कर - वृष्टि-रुद्घा।
गन्धोद - बिन्दु- शुभ - मन्द - मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा॥ 33॥

शुम्भत्-प्रभा- वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते,
लोक - त्रये - द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्- दिवाकर-निरन्तर - भूरि -संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥34॥

स्वर्गापवर्ग - गम - मार्ग - विमार्गणेष्ट:,
सद्धर्म- तत्त्व - कथनैक - पटुस्-त्रिलोक्या:।
दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य:॥ 35॥

उन्निद्र - हेम - नव - पङ्कज - पुञ्ज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिराौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति॥ 36॥

इत्थं यथा तव विभूति- रभूज् - जिनेन्द्र्र !
धर्मोपदेशन - विधौ न तथा परस्य।
यादृक् - प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥ 37॥

श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-ूल,
मत्त- भ्रमद्- भ्रमर - नाद - विवृद्ध-कोपम्।
ऐरावताभमिभ - मुद्धत - मापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥ 38॥

भिन्नेभ - कुम्भ- गल - दुज्ज्वल-शोणिताक्त,
मुक्ता - फल- प्रकरभूषित - भूमि - भाग:।
बद्ध - क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते॥ 39॥

कल्पान्त - काल - पवनोद्धत - वह्नि -कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल - मुत्स्फुलिङ्गम्।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख - मापतन्तं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्॥ 40॥

रक्तेक्षणं समद - कोकिल - कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन - मुत्फण - मापतन्तम्।
आक्रामति क्रम - युगेण निरस्त - शङ्कस्-
त्वन्नाम- नागदमनी हृदि यस्य पुंस:॥ 41॥

वल्गत् - तुरङ्ग - गज - गर्जित - भीमनाद-
माजौ बलं बलवता - मपि - भूपतीनाम्।
उद्यद् - दिवाकर - मयूख - शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥ 42॥

कुन्ताग्र-भिन्न - गज - शोणित - वारिवाह,
वेगावतार - तरणातुर - योध - भीमे।
युद्धे जयं विजित - दुर्जय - जेय - पक्षास्-
त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते॥ 43॥

अम्भोनिधौ क्षुभित - भीषण - नक्र - चक्र-
पाठीन - पीठ-भय-दोल्वण - वाडवाग्नौ।
रङ्गत्तरङ्ग -शिखर- स्थित- यान - पात्रास्-
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति ॥ 44॥

उद्भूत - भीषण - जलोदर - भार- भुग्ना:,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:।
त्वत्पाद-पङ्कज-रजो - मृत - दिग्ध - देहा:,
मत्र्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा:॥ 45॥

आपाद - कण्ठमुरु - शृङ्खल - वेष्टिताङ्गा,
गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट - जङ्घा:।
त्वन्-नाम-मन्त्र- मनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति॥ 46॥

मत्त-द्विपेन्द्र- मृग- राज - दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर - बन्ध -नोत्थम्।
तस्याशु नाश - मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते॥ 47॥

स्तोत्र - स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं,
तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी:॥ 48