महाश्रमण ने कहा

1. तुम कार्यकर्ता बनना चाहते हो यह अच्छी बात हो सकती है पर तुम यह सोचो तुम्हारा अपने काम, क्रोध व भय पर नियंत्रण है या नहीं | - आचार्य श्री महाश्रमण 2. यदि यह आस्था हो जाए कि मूर्तिपूजा करना, द्रव्यपूजा करना धर्म है तो वह तेरापंथ की मान्यता के अनुसार बिल्कुल गलत है | हमारे अनुसार यह सम्यक्त्व को दूषित करने वाला तत्व है | - परमश्रद्धेय आचार्यश्री महाश्रमणजी 3. जो भी घटना घटित हो, उसे केवल देखना सीखे, उसके साथ जुड़े नहीं | जो व्यक्ति घटना के साथ खुद को जोड़ देता है, वह दु:खी बन जाता है और जो द्रष्टा ( viewer ) भाव से घटना को देखता है, वह दुःख मुक्त रहता है | ~आचार्य श्री महाश्रमणजी

Monday 15 July 2019

ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की ओर हो गति: आचार्यश्री महाश्रमण

◆आचार्यश्री ने चतुर्विध धर्मसंघ को मोक्ष प्राप्ति का बताया मार्ग
◆आचार्यश्री की पावन प्रेरणा प्राप्त कर निहाल हो उठे श्रद्धालु
15.07.2019 कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): चार शब्द हैं-मार्ग, मार्गदर्शक, गति और गंता। मार्ग अपने आप में महत्त्वपूर्ण होता है। इसके भी दो प्रकार होते हैं-सन्मार्ग और कुमार्ग। कुमार्ग अथात् गलत राह पर चलने से दुर्गति को प्राप्त किया जा सकता है तो सन्मार्ग पर चलकर सद्गति को प्राप्त किया जा सकता है। आदमी को कहां जाना है, उसका गंतव्य कहां है, यह निर्धारित हो जाए तो मार्ग का चुनाव भी किया जा सकता है। अध्यात्म जगत का गंतव्य मोक्ष है। उस मोक्ष प्राप्त की दिशा में ले जाने वाला मार्ग है- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। इन मार्गों पर गति करते हुए मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
इस मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। जब कोई मार्गदर्शक होता है तो वह सही मार्ग दिखा सकता है। ऐसे मार्गदर्शक गुरु और आचार्य होते हैं। मार्ग का ज्ञान हो जाता है तो फिर उस मार्ग पर गति होती है और गति तब होती है जब कोई गंता होता है। जब गति होगी तो गंतव्य की भी प्राप्ति संभव हो सकती है। जैन शासन में धर्म की दिशा में आगे बढ़ने के लिए चतुर्मास के चार महीनों का बहुत महत्त्व है। चतुर्मास लगने से पूर्व आने वाली चतुर्दशी का भी अपना महत्त्व है। मानों यह दिन चतुर्मास लगने की सूचना देने वाला है। वर्ष के बारह महीनों में धर्म की दृष्टि से चतुर्मास का समय ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। इन चार महीनों में कितने-कितने धार्मिक कार्य किए जाते हैं। इस दौरान पर्युषण, नवाह्निक अनुष्ठान आदि के द्वारा तपस्याओं आदि का क्रम भी चलता है।
साधु-साध्वियों का एक स्थान पर रहना होता है तो साधु-साध्वियां भी धर्म की ओर गति करते हैं और उनकी सन्निधि प्राप्त कर श्रावक-श्राविकाएं भी धर्म की ओर गति करते हैं। इस दौरान साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं को ज्ञानाराधना की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा लिखित संबोधित ग्रंथ साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं दोनों को सीखने का प्रयास करना चाहिए। ज्ञानशाला के माध्यम से ज्ञानार्जन का क्रम चलना चाहिए। इसके अलावा समण संस्कृति संकाय आदि अनेक संस्थाओं के माध्यम से भी ज्ञानार्जन का क्रम चलता है, उनके माध्यम से ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने आगे कहा गुरु के प्रति आस्था बढ़े, गुरुधारणा हो और श्रद्धा की दृढ़ता का विकास हो। इस प्रकार दर्शनाराधना का विकास होना चाहिए। साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं को चारित्राराधना के क्षेत्र में विकास करने का प्रयास करना चाहिए। तपःराधना की दिशा में भी गति करने का प्रयास करना चाहिए। बेला, तेला, अठाई, मासखमण आदि अनेक प्रकार की तपस्याओं के माध्यम से तप की आराधना की जा सकती है। साधु-साध्वियों में विशेष रूप से रोज नवकारसी हो जाए तो आत्मा रूपी गुल्लक में कुछ-कुछ तपस्या प्रतिदिन भरती रह सकेगी। बेंगलुरु में चतुर्मास हो रहा है। यहां के निवासियों को भी जितनी अनुकूलता हो, इसका लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। जीवन को सद्गति की ओर जाने वाले उक्त सन्मार्ग को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने चतुर्मास प्रवास स्थल में बने महाश्रमण समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को दिखाईं।
इस दौरान आचार्यश्री ने चतुर्मास स्थल में चलने वाले विभिन्न धार्मिक और ज्ञानात्मक विकास के अनेक कार्यक्रमों के समय का निर्धारण करने के साथ ही उस कार्य के लिए विभिन्न चारित्रात्माओं को नामित भी किया। इसके उपरान्त आचार्यश्री ने हाजरी का वाचन किया। नवदीक्षित बालमुनि ऋषिकुमारजी ने लेखपत्र का उच्चारण किया। तत्पश्चात् समस्त साधु-साध्वियों ने लेखपत्र का उच्चारण कर अपनी श्रद्धा और समर्पण के भावों को पुष्ट बनाया। आचार्यश्री ने नवदीक्षित 21 साध्वियों को मुनिवृंद को वंदन करने का आदेश दिया और उनके वंदन करने के उपरान्त मुनिवृंद की ओर से मुनि दिनेशकुमारजी और मुनि धर्मरूचिजी ने साध्वियों को मंगलकामना प्रदान की। इसी प्रकार नवदीक्षित मुनियों से साध्वीवृंद को वंदन कराया तो साध्वियों की ओर से साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने नवदीक्षित मुनिद्वय के प्रति मंगलकामना व्यक्त की। समण संस्कृति संकाय के विभागाध्यक्ष श्री मालचंद बैंगानी ने कार्यक्रम से संबंधित जानकारी प्रस्तुत की।