Monday, 18 February 2013
Sunday, 17 February 2013
H.H. Gurudev Acharya Shree Mahasraman Ji declares Chaturmases for 2013 Audio File
H.H. Gurudev Acharya Shree Mahasraman Ji
declares Chaturmases for 2013 Part 1 Audio
http://cl.ly/1T1L1W3u0A1f
H.H. Gurudev Acharya Shree Mahasraman Ji
declares Chaturmases for 2013 Part 2 Audio
http://cl.ly/123s3B0D0Q3z
H.H. Gurudev Acharya Shree Mahasraman Ji
declares Chaturmases for 2013 Part 3 Audio
http://cl.ly/1c0d3F152l2l
declares Chaturmases for 2013 Part 1 Audio
http://cl.ly/1T1L1W3u0A1f
H.H. Gurudev Acharya Shree Mahasraman Ji
declares Chaturmases for 2013 Part 2 Audio
http://cl.ly/123s3B0D0Q3z
H.H. Gurudev Acharya Shree Mahasraman Ji
declares Chaturmases for 2013 Part 3 Audio
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149वें मर्यादा महोत्सव { टापरा } का सीधा प्रसारण
तेरापंथ धर्म संघ के 149वें मर्यादा महोत्सव { टापरा } का सीधा प्रसारण आप अपने घरों में भी देख सकते हैं |
17 फरवरी को पारस चेनल पर दोपहर 12 बजे से 4 बजे तक |
17 फरवरी को पारस चेनल पर दोपहर 12 बजे से 4 बजे तक |
Tuesday, 12 February 2013
आचार्य पर होता है धर्मसंघ का सबसे बड़ा दायित्व : महाश्रमण
टापरा (बालोतरा) 12 फरवरी 2013 जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो
आचार्य के दायित्व बताए: उन्होंने कहा कि शरण उसी की जाना चाहिए, जो शरण दे सकें। आचार्य ने आचार्यों के ग्यारह दायित्व उल्लेख करते हुए कहा कि आचार्यों का प्रथम व द्वितीय दायित्व है सारणा-वारणा करना तथा तीसरा दायित्व है दीक्षा देना। चौथा दायित्व है उत्तराधिकारी की खोज, निर्माण व मनोनयन करना। पांचवां दायित्व है चातुर्मास व विहार की निर्धारण करना। स्वयं के चातुर्मास, विहार पथ की भी निर्धारण करना, व्यक्ति का नियोजन करना, साधु-साध्वी को सिंघाड़े में देना, अग्रणी बनाना, साध्वी प्रमुखा, मंत्री मुनि, मुख्य नियोजिका बनाना, ये सब तेरापंथ के आचार्य से होते हैं। प्रशिक्षित करना सातवां दायित्व होता है। व्याख्यान की व्यवस्था करना, स्वयं व्याख्यान देना, क्लास लेना, बंचाना, आगम संबंधी काम करना, ज्ञान गोष्ठी लगाना। आठवां दायित्व प्रायश्चित देना होता है। आचार्य इस दायित्व के कारण डॉक्टर के समान होते हैं। नौवां दायित्व साधु-साध्वी के वार्षिक रिपोर्ट का आंकलन करना। दसवां दायित्व पृच्छा करना है। ग्यारहवां दायित्व मंगलपाठ सुनाना है। बारहवां दायित्व श्रावक समाज को संभालना है। तेरहवां दायित्व तनावमुक्त रहना है। आचार्य व्यस्त रहे पर अस्त-व्यस्त न रहे। आचार्य ने प्रेरणा देते हुए कहा कि ऐसे आचार्यों की शरण में जाना सरल होता है।
आगे बढऩे के लिए गुरु जरूरी: मंत्री मुनि सुमेरमल
मंत्री मुनि सुमेरमल ने कहा कि जीवन में आगे बढऩे के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। जो व्यक्ति अध्यात्म में आगे बढ़ता है, उसे मार्गदर्शन की अपेक्षा बनी रहती है। छद्मस्थकाल की अवस्था मार्गदर्शन के साथ चलती है। मार्गदर्शन देने वाले अनुभवी, बहुश्रुती हो, जिनका जीवन आलोक पुंज हो। वे अपने अनुभव के आधार पर अपने निकट आने वाले को विकट विक्षेप का निराकरण करने का मार्ग बताते हैं, वे आचार्य होते हैं। जो स्वयं अपने आचरण से औरों का पथदर्शन करते हैं, ऐसे आचार्य को गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु आवश्यक है। बिना गुरु के आगे बढऩे का क्रम संदिग्ध रहता है। गुरु मार्गदर्शन देने वाले हैं तो असंदिग्ध है। गुरु अगर सिद्घपुरुष मिल जाते हैं तो उनका वर्तमान के साथ भविष्य भी सुधर जाता है। वे निहाल हो जाते हैं। गुरु का दायित्व होता है उनका शिष्य संसार में भटके नहीं, आचार से भ्रष्ट न बने, कोई उसे अंगुली न दिखाए तो उसका शिष्य बनना सार्थक है। साधक के लिए आचरण सिद्ध, अनुभव सिद्ध की शरण में जाना चाहिए। जिन्होंने आचार्य की शरण ले ली, उनके लिए आचार्य ही गीता, भागवत व भगवत है। आचार्य, गुरु की शरण ले लेने के बाद साधक की अपनी प्रक्रिया साधना के मार्ग में नहीं रहती। फिर तो आचार्य इंगित के अनुरूप चलता रहे। समर्पित साधक की सोच हमेशा आचार्य के अनुरूप बनती है। समर्पण सर्वात्मना होने पर फलदायी होता है। हर साधक-साधिका को, धार्मिक व्यक्ति को गुरु बनाना चाहिए और उसके प्रति समर्पित रहना चाहिए। ऐसा होने पर उनके बताए मार्ग पर चलने से वह मंजिल को प्राप्त कर लेता है। कार्यक्रम के अंत में मुनि मदन कुमार ने विचार व्यक्त किए।
जय मर्यादा समवसरण : तेरापंथ के आचार्य महाश्रमण ने बताए आचार्य के तेरह दायित्व
'नमस्कार महामंत्र के पांच पदों में मध्यस्थ आचार्य होते हैं और जब तीर्थंकर विद्यमान नहीं होते हैं, तब उस समय आचार्य का अधिक महत्व होता है। आचार्य तीर्थंकर के प्रतिनिधि व तीर्थंकर तुल्य होते हैं। धर्मसंघ का सबसे बड़ा दायित्व उन पर होता है।' यह वक्तव्य तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य महाश्रमण ने सोमवार को टापरा में आयोजित धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
आचार्य के दायित्व बताए: उन्होंने कहा कि शरण उसी की जाना चाहिए, जो शरण दे सकें। आचार्य ने आचार्यों के ग्यारह दायित्व उल्लेख करते हुए कहा कि आचार्यों का प्रथम व द्वितीय दायित्व है सारणा-वारणा करना तथा तीसरा दायित्व है दीक्षा देना। चौथा दायित्व है उत्तराधिकारी की खोज, निर्माण व मनोनयन करना। पांचवां दायित्व है चातुर्मास व विहार की निर्धारण करना। स्वयं के चातुर्मास, विहार पथ की भी निर्धारण करना, व्यक्ति का नियोजन करना, साधु-साध्वी को सिंघाड़े में देना, अग्रणी बनाना, साध्वी प्रमुखा, मंत्री मुनि, मुख्य नियोजिका बनाना, ये सब तेरापंथ के आचार्य से होते हैं। प्रशिक्षित करना सातवां दायित्व होता है। व्याख्यान की व्यवस्था करना, स्वयं व्याख्यान देना, क्लास लेना, बंचाना, आगम संबंधी काम करना, ज्ञान गोष्ठी लगाना। आठवां दायित्व प्रायश्चित देना होता है। आचार्य इस दायित्व के कारण डॉक्टर के समान होते हैं। नौवां दायित्व साधु-साध्वी के वार्षिक रिपोर्ट का आंकलन करना। दसवां दायित्व पृच्छा करना है। ग्यारहवां दायित्व मंगलपाठ सुनाना है। बारहवां दायित्व श्रावक समाज को संभालना है। तेरहवां दायित्व तनावमुक्त रहना है। आचार्य व्यस्त रहे पर अस्त-व्यस्त न रहे। आचार्य ने प्रेरणा देते हुए कहा कि ऐसे आचार्यों की शरण में जाना सरल होता है।
आगे बढऩे के लिए गुरु जरूरी: मंत्री मुनि सुमेरमल
मंत्री मुनि सुमेरमल ने कहा कि जीवन में आगे बढऩे के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। जो व्यक्ति अध्यात्म में आगे बढ़ता है, उसे मार्गदर्शन की अपेक्षा बनी रहती है। छद्मस्थकाल की अवस्था मार्गदर्शन के साथ चलती है। मार्गदर्शन देने वाले अनुभवी, बहुश्रुती हो, जिनका जीवन आलोक पुंज हो। वे अपने अनुभव के आधार पर अपने निकट आने वाले को विकट विक्षेप का निराकरण करने का मार्ग बताते हैं, वे आचार्य होते हैं। जो स्वयं अपने आचरण से औरों का पथदर्शन करते हैं, ऐसे आचार्य को गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु आवश्यक है। बिना गुरु के आगे बढऩे का क्रम संदिग्ध रहता है। गुरु मार्गदर्शन देने वाले हैं तो असंदिग्ध है। गुरु अगर सिद्घपुरुष मिल जाते हैं तो उनका वर्तमान के साथ भविष्य भी सुधर जाता है। वे निहाल हो जाते हैं। गुरु का दायित्व होता है उनका शिष्य संसार में भटके नहीं, आचार से भ्रष्ट न बने, कोई उसे अंगुली न दिखाए तो उसका शिष्य बनना सार्थक है। साधक के लिए आचरण सिद्ध, अनुभव सिद्ध की शरण में जाना चाहिए। जिन्होंने आचार्य की शरण ले ली, उनके लिए आचार्य ही गीता, भागवत व भगवत है। आचार्य, गुरु की शरण ले लेने के बाद साधक की अपनी प्रक्रिया साधना के मार्ग में नहीं रहती। फिर तो आचार्य इंगित के अनुरूप चलता रहे। समर्पित साधक की सोच हमेशा आचार्य के अनुरूप बनती है। समर्पण सर्वात्मना होने पर फलदायी होता है। हर साधक-साधिका को, धार्मिक व्यक्ति को गुरु बनाना चाहिए और उसके प्रति समर्पित रहना चाहिए। ऐसा होने पर उनके बताए मार्ग पर चलने से वह मंजिल को प्राप्त कर लेता है। कार्यक्रम के अंत में मुनि मदन कुमार ने विचार व्यक्त किए।
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